रविवार, 20 सितंबर 2015

इल्हामियों की "तोड़ो भारत " राजनीति

एक अरसे से देख रहा हूँ और इस से विचलित भी हूँ ।  

तोड़ो भारत की राजनीति करनेवाले कुछ मुस्लिम, जो सिर्फ पैदा यहाँ हुए हैं लेकिन भारत तोड़ने की मंशा रखते हैं, आज कल हिंदुओं में जातिवाद को ले कर सोशल मीडिया पर काफी आक्रामक हो रहे हैं। हर  जगह हिंदुओं में केवल फूट डालने की नियत से जातिवाद को ले कर ऊटपटाँग सवाल कर देते हैं ।  अगर आप उनको उनके सवालों की पुष्टि करने को कहें तो सीधा प पू डॉ बाबासाहेब आंबेडकर का हवाला देते हैं, कि उन्होनें ऐसे लिखा है । उसका भी रिफ्रेन्स देने की इनकी दिमागी कुव्वत या औकात नहीं होती, बस फेंक देते हैं जो उनके मजहबी उसूलों से उनके लिए जायज भी माना जाता है ।  वैसे सय्यद -शेख-पठान जैसे विदेशी नस्ल के  अशरफ और  देसी मूल के पासमांदा मुसलमानों में भेदभाव क्यूँ है उसका उत्तर  वे देंगे नहीं, या अगर पूछा जाये तो बोल देंगे कि ऐसा कुछ होता ही नहीं । झूठ बोलना जायज तो है ही । 

वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे निपट झूठ बोल रहे हैं और इतिहास संशोधको के मत प पू डॉ आंबेडकर के निष्कर्षों की पुष्टि नहीं करते । उनका इरादा तो सिर्फ हमारे दलित भाई और हमारे बीच झगड़ा  कराने का होता है । क्योंकि जैसे ही अगर कोई कहे कि बाबासाहेब के नाम पर कही जानेवाली यह बात सत्य नहीं लगती, किसी फर्जी दलित ID से कोई चिल्लाता है कि ये बाबासाहब का अपमान है। बस, हो गया – दलित वैसे ही बिफरते हैं जैसे मुस्लिम जब उन्हें कुरान और रसूल के बारे में कुछ आपत्तीजनक सवाल पूछे जाएँ ।  

फिर क्या होना है, हिंदुओं के बीच ही लड़ाई शुरू हो जाती है और ये प्रेक्षक बन कर मजा लूटते हैं । कहीं समझदारी  काम करती दिखी तो दलित भाइयों को उकसाने के लिए ये सज्ज ही बैठे होते हैं ।  

ये दलित भाइयों को इतिहास के बारे में झूठी जानकारी दे कर उकसाते रहते है, और सदियों तक उनके हाथों दलितों ने क्या भुगता है ये छिपाते हैं । कुछ जातियाँ इनके अत्याचारों के कारण आज दलितों में गिनी जाती है ये बात ये हमेशा छुपाए रखते हैं । सब से दुखद बात ये है कि हमारे दलित बांधव इन झूठी बातों के झांसे नें आ जाते हैं । बाबासाहब ने शिक्षा का महत्व सर्वोपरि बताया था, वो अगर आत्मसात हो तो ऐसे देशद्रोहियों के  झूठ का सामना सच्चाई से हो ही जाएगा ।  

हमारे आंबेडकारवादी भाइयों को चाहिए कि एक बार प पू डॉ बाबासाहब के “Thoughts On Pakistan” का भी अभ्यास करें तो उनकी चेतावनी तुरंत समझ में आएगी । ये बात मननीय है कि ये देशविरोधी मुस्लिम जो आप के दोस्त बनाने का दावा करते हैं वे नहीं चाहते कि आप ये किताब पढ़ें ।  

वैसे, क्या आप ने कभी ये भी सोचा है कि प पू डॉ आंबेडकर जैसे स्वतंत्र बुद्धिमत्ता का व्यक्ति  केवल हिन्दू धर्म में ही क्यों पैदा हुआ, इस्लाम में आज तक क्यों पैदा नहीं हुआ जो उनके कुरीतियों पर प्रहार करे, धर्मग्रंथ को लेकर जो रास नहीं आता उस पर सवाल करे? क्योंकि उनके यहाँ खुद को गुलाम मानने में ही धन्यता मानी जाती है । पूछ लो कभी !  

आइये, एक हो कर देश के शत्रुओं का सामना करें । झूठ से बचें ।  

इस पोस्ट को शेयर करने का अनुरोध क्यों है ये कहना जरूरी है? हम सब के अगली पीढ़ी का सवाल है । 

Thoughts On Pakistan यहाँ मुफ्त उपलब्ध है।
और भी जगह से मिलेगी। अगर किसी को हिन्दी ऑनलाइन एडिशन का पता है तो कृपया  कमेन्ट   बॉक्स में लिंक दें ।

UNCOVERING DEFRAUDED INDIA - भारत के साथ छलावे का पर्दाफाश - 2


कल इस विषय पर पहिली पोस्ट लिखी थी ।
बात उठाई थी इतिहास को विकृत कर के shame game के तहत शर्म के बोझ तले हिंदुओं के आत्मसम्मान को दबाने की। ये रही लिंक अगर न पढ़ी हो 
राजा राम मोहन रॉय के उठाए मुद्दों पर जरा बात करें ।
1 सतीप्रथा का अंत, जिसके लिए वे सब से प्रसिद्ध हैं - वे और William Bentinck
2 Rigidity of Caste System कठोर जाती व्यवस्था
3 Polygamy बहुपत्नीत्व
4 Child Marriages बाल विवाह
सती प्रथा को ले कर बचपन की कथाएँ जो याद हैं वे दिल दहला देने वाली थी। विधवा स्त्री को बोझ मानकर चिता में धकेला जाता था, क्या होता है यह समझ न आए इसलिए नशीले पदार्थ खिलाये पिलाये जाते थे और फिर भी अगर आग से वो भागने की वो कोशिश करे तो लंबे लंबे लकड़ियों से उसे अंदर वापस धकेला जाता था । उसकी चीखें न सुनाई दें इसलिए वाद्य ज़ोर शोर से बजाए जाते थे । चित्र भी थे - फोटो नहीं, 20 वी सदी के किसी चित्रकार ने कल्पनासे बनाए कृष्ण धवल चित्र । और ऐसी दक़ियानूसी प्रथा से - भारत की - हिन्दू स्त्रियॉं को मुक्ति दिलानेवाले उनके तारनहार भारत माता के सपूत राजा राम मोहन रॉय ।
यही पढ़ा था मैंने । और मेरी पढ़ाई कान्वेंट की नहीं है । वहाँ क्या पढ़ाया जाता होगा, पता नहीं ।
आज सोचता हूँ, याने उन दिनों विधवाएँ होती ही नहीं थी? पति मर गया तो सीधा इसको भी साथ में pack कर के भेज देते थे क्या? क्या सिर्फ राजघरानों में विधवाओं को जीने का अधिकार था? क्या सभी सती होती थी?
समाज के इतिहास के प्रति अपने पूर्वजों की उदासीनता पर गुस्सा आता है इस वक़्त कि जो बात तर्क से विसंगत तो लगती है लेकिन विश्वसनीय तथ्यों के अभाव में हम निरुत्तर हैं । यह तो यूं हुआ कि किसी सफ़ेद बाल, झुर्रियों से भरे और कमर में दोहरे हो कर लकड़ी के ही बल मुश्किल से चल पाने वाले किसी वृद्ध को कोई रेल्वे का TC age proof के बगैर सीनियर सिटिज़न अस्वीकार कर दें और वो कुछ न कह सके ।
क्या सती होने के उस समाज को या उस घर को कोई सामाजिक प्रतिष्ठा, लाभ इत्यादि थे? क्या उनको महत्व मिलता था? क्योंकि जहां तक दिख रहा है, ऐसे ही चीजों को ध्वस्त करने का जेताओं का स्वभाव रहा है । खैर, सती का मैं समर्थक तो नहीं हूँ, लेकिन यहाँ कुछ बातें अनुत्तरित लगती तो है ।
Caste System को देखते हैं कि अंग्रेजों ने इसमें पाया कि समाज को एक साथ बांधनेवाली कोई बात है तो यह है । इसका विध्वंस हिन्दू समाज के विध्वंस की कुंजी है, अत: इसको कैसे भी कर के ध्वस्त करना है । उस वक़्त उन्होने क्या प्रयत्न किए और उन्हें कितनी सफलता मिली यह मुझे जानकारी नहीं है, लेकिन सालों बाद उन्होने जो किया उसका वर्णन इस चुट्कुले में आप को मिल जाएगा, सुनिए:
खिलौने के दुकान में एक बौराई हुई माता घुस आई । नजर किसी को ढूंढ रही थी। एक सेल्समन पर जा टिकी । गुस्से से लगभग पाँव पटकती वो उसके सामने जा खड़ी हुई और शेल्फ में रखे एक खिलौने के तरफ निर्देश करते उसे पूछा - आप ने ही वो खिलौना मुझे बेचा था न कल? यही कहा था ना कि ये टूट नहीं सकता?
भौंचक्के सेल्समन ने पूछा - कहना क्या चाहती हैं आप? आप के बच्चे ने तोड़ा उसे?
"नहीं", औरत ने जवाब दिया ,लेकिन उसे लेकर अपने बाकी सभी खिलौने चकनाचूर कर दिये उसने !
जातियाँ तो तोड़ नहीं सके, उल्टा तो और पुख्ता कर दी और सभी समस्याओं के लिए उस पर ही आरोप लगाकर समाज को ही तोड़ डाला गदाघात से ! क्या नहीं?
बहुपत्नीत्व की बात करें । किसके बस की बात थी ? जमींदार, रियासतवाले ही होंगे । अब यहाँ एक बात सोचते हैं । यह सत्ताधारी वर्ग मैं विवाह अक्सर घरानों के गठबंधन के लिए होते थे, आज भी वही कारण से होते हैं, बस एक ही हो पाता है वो बात अलग है । तो गठबंधन से पॉलिटिकल ताकत बढ़ती है अगर ....कैसे बर्दाश्त हो ? प्रथा की निंदा करो, समाज की निंदा करो, शर्म के बोझ में इजाफा करो ....
बाल विवाह - क्या कुछ किया भी इनहोने या इनके बाद भी किसी ने? 1980 के दशक में मुझे याद है, INDIA TODAY ने राजस्थान में कोई मुहूर्त को लेकर हजारो बालविवाह हुए थे उस पर कवर स्टोरी की थी। याने होते होते यह सभी कुरीतियाँ समाप्त की तो हिंदुओं ने ही ।
तो इनहोने कुछ खत्म किया भी या नहीं? जवाब हाँ ही है, लेकिन क्या खत्म किया इनहोने?
हिन्दू समाज ! उसकी सामाजिक एकता !
सुधारने के लिए सिर्फ हिन्दू ही मिले इनको? भारत के सत्ताधीश थे, भारत के मुसलमान तो किसी और ग्रह पर तो नहीं न बस रहे थे ।
अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च ।
अजापुत्रं बलिं दद्यात् देवो दुर्बलघातकः॥
कल जब इस विषय पर लिखने का विचार किया था तब शंकित था कि कैसे प्रतिसाद मिलेगा । लेकिन जो मिला और देर रात तक जो पाठकों के बीच मंथन चलता रहा वो देख कर संतुष्टि हुई कि वाकई ‪#‎भारत_बदल_रहा_है‬ !
भारत को तोड़ने का यह खेल आप को समझ आ रहा है तो कृपया इस लेख को शेयर कर के दूसरों को भी सचेत करें । आभार ।

UNCOVERING DEFRAUDED INDIA - भारत के साथ छलावे का पर्दाफाश - 1

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सतीप्रथा क्या होती थी? नहीं, मैं जवाब नहीं मांग रहा आप से, आप भी उतना ही जानते हैं इस विषय में जितना मैं जानता हूँ । एक कुप्रथा थी जिसे राजा राम मोहन रॉय और तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बेंटिंक ने समाप्त करवाई । यही है ना?
सवाल यह है कि क्या यह सच है ? क्या यही सच है? क्या सती वाकई कुप्रथा थी या नहीं ?
सच तो यह है कि मुझे भी पता नहीं कि हकीकत क्या थी। लेकिन सच यह भी है कि मैं और आप वहीं स्वीकार करने को मजबूर हैं जो अंग्रेजोने हमें बताया है ।
दुनिया का सब से दीर्घ इतिहास हमारा है, लेकिन हम उसके प्रलेखन (documentation) को ले कर बहुत ही उदासीन रहे हैं । और हमारे पूर्वजों की इस त्रुटि की कीमत हम से आक्रांताओं ने वसूली है जो इतिहास का शस्त्र के तौर पर उपयोग करना जानते थे ।
राजा राम मोहन रॉय के बारे में पढ़ते हुए यह वाक्य मिले विकिपीडिया पर ।
  • Rammohan Roy’s experience working with the British government taught him that Hindu traditions were often not credible or respected by western standards and this no doubt affected his religious reforms. He wanted to legitimize Hindu traditions to his European acquaintances by proving that "superstitious practices which deform the Hindu religion have nothing to do with the pure spirit of its dictates!" The "superstitious practices" Rammohan Roy objected included sati, caste rigidity, polygamy and child marriages. These practices were often the reasons British officials claimed moral superiority over the Indian nation. Rammohan Roy’s ideas of religion actively sought to create a fair and just society by implementing humanitarian practices similar to Christian ideals and thus legitimize Hinduism in the modern world.

क्या मतलब है इन वाक्यों का ? मुझे इनमें एक अनकहा सच दिख रहा है कि राजा राम मोहन रॉय अपने मूल हिन्दू धर्म को ले कर लज्जित थे । अब ये वाकई धार्मिक परम्पराओं को ले कर लज्जा थी या अंग्रेजों से स्वीकृत होने के लिए कुछ भी कर गुजरने की तैयारी, इसका आज हम मूल्यांकन नही कर सकते क्योंकि हमारे पास कोई अन्य version मौजूद ही नही है । लेकिन एक बात का भारत के माथे पे दाग लगाया जाता है कि तुम लोगों में इतनी सारी कुरीतियाँ थी जो हमारे कारण ही खत्म हुई हैं ।
ये शर्मिंदा करने का खेल है (Shame Game) तथा समाज विघटन का भी है जिसे आगे खेला गया। एक शब्द नोट करिए caste rigidity। याने हिन्दू विघटन का यह खेल तभी से चालू है जिसके लिए अंग्रेज़ हमेशा कोई स्थानीय मोहरा इस्तेमाल करते थे ।
1857 के समर के सभी विप्लवियों को ढूंढ ढूंढ कर मारा अंग्रेजोने । उसके बाद यह खेल फिर से चालू हुआ । अचानक कहाँ से जातिवाद इतना असह्य रूप से बड़ा हो गया जो इसके पहले इतिहास में नहीं था? नीची से नीची मानी गई जातियोंके लोग भी ऊंचे से ऊंचे जाती के राजाओं के लिए खुशी से जान न्योछावर क्यों करते थे? उनके लिए अकृत्रिम निष्ठा क्यों थी?
हिन्दू परंपरा में जातिवाद, ब्राह्मणवाद ये शब्द कभी थे ही नहीं । दलित भी नहीं था कहीं । यह "वाद" प्रत्यय तो सीधे सीधे "ism" का भाषांतर है - casteism से जातिवाद, Brahmanism से ब्राह्मणवाद । ये दोनों शब्द कहाँ हैं हिन्दू परंपरा में? नहीं हैं तो कहाँ से आए, किसने घुसाए इन्हें हमारे मनों में?
मनु तो 1931 के आसपास पैदा किए गए, जिस रूप में दल हित चिंतक उन्हें परोसते हैं । पढ़ी भी है मनुस्मृति किसी ने या अंग्रेजों का सिखया शर्म का खेल बेशर्मी से खेला जा रहा है? कब लागू थी मनुस्मृति? कहाँ लिखा है पिघलता सीसा ? क्यूँ बैठता नहीं कोई भी दल हित चिंतक किसी भी हिन्दू विद्वान के साथ श्लोक दर श्लोक शास्त्रार्थ के लिए?
अंग्रेज़ो की हमेशा एक स्टाइल रही । नीच कर्म हमेशा स्थानिकों के ही हाथों करवाते थे ।बिभीषण राम को ढूंढते आ गए, ये सब से पहले बिभीषण ढूंढ लेते । गोबर इनका, लेकिन लीपने के लिए आदमी लोकल ।
खैर, अभी इतिहास सामने आ रहा है । हिंदुस्तान के द्रोही जो झूठ को सच बतलाते घूमते थे, अब उनसे भी सवाल किए जा रहे हैं और सब के सामने सच खुल रहा है कि ये विदेशियों के हाथों बिके लोग हैं । दर्द सिर्फ उस बात का है कि इनके पूर्वसूरी यही काम कर के भी इतने महान बनाए गए कि उनकी पोल खोल समाज के लिए पीड़ादायक होगी। लेकिन फिर भी, यह भी जरूरी होगा ।
Aatish Taseer एक प्रसिद्ध लेखक हैं और बहुत ही सुंदर लिखते हैं । संस्कृत के भी गहरे अभ्यासक हैं । उनका एक वाक्य मुझे हमेशा विचलित कर जाता है : जो लोग अपने इतिहास का अध्ययन नहीं करते वो उसे विकृत रूप में प्रस्तुत करनेवालों से छले जाने के लिए अभिशप्त हैं । 
When you don't study your past, you expose yourself to people distorting it.

पोस्ट जरा अलग है, सब के रुचि का विषय नहीं है, लेकिन उम्मीद करता हूँ कि आप को रुचि निर्माण होगी क्योंकि इस विषय पर आगे काफी कुछ लिखना है कि भारत के साथ क्या फ़्रौड हुआ है ।
जिन्हें बात समझ आई है उनके कमेन्ट प्रार्थित हैं । शेयर भी । बाकी लाइक करें न करें ।

साथ चलने की कीमत मांगने से पहले, अकेले चलने का नुकसान समझ लो ।

कसाई और ईसाई - दोनोंने हिंदुओं को भ्रष्ट कर के अपनी संख्या कैसे बढ़ाई ये साधारणत: सभी जानते ही हैं । उसके कुछ विशेष पहलूओंपर यह पोस्ट है ।
बरगलाकर गौमांस खिलाना, पानी में गौमांस या कोई वर्जित मांस का टुकड़ा दाल कर अगर वो पानी पिया जाये तो सामने आ कर "तुम अभी हिन्दू नहीं रहे" की घोषणा करना इत्यादि उनके फेवरिट हथकंडे थे, राइट? तलवार के बल से भी मतांतरण आम बात थी ।
नेताजी पालकर > महम्मद कुली खान > नेताजी पालकर की कहानी भी पता होगी? छत्रपति शिवाजी के एक बड़े सेनापति थे । मतभेद के कारण मनमुटाव हुआ, फिर औरंगजेब द्वारा पकड़े गए और जबरन कन्वर्ट भी किए गए । लेकिन जब मराठा साम्राज्य में मुहिम पर लौटे तो फिर से हिन्दू होने के मंशा से शिवाजी महाराज से जा मिले और शिवाजी महाराज ने शास्त्रियों से सलाह मशवरा कर के दुबारा हिन्दू धर्म में ले लिया । नेताजी "प्रति शिवाजी" माने जाते थे, और ऐसा साथी खोना शिवाजी महाराज नहीं चाहते थे ।
लेकिन अपनों को दुबारा अपनाना यह दूर की सोच हमारे ही धर्म के रखवालों ने नहीं दिखाई, अन्यथा ताजा ताजा जबरन कन्वर्ट हुए लोगों को फिर से हिन्दू कर लेते तो कम से कम नुकसान तो नहीं होता। उन्होने तो अपनी मूर्खता के कारण ही शत्रु सेना की संख्या बढ़ाई ।
आज शाकाहार मांसाहार का जो झगड़ा दिख रहा है ये यही दिखा रहा है कि ना हम उन भूलों से कुछ सीखे हैं न शिवाजी महाराज से । भाई, शाकाहारी ही शुद्ध हिन्दू नहीं होता और मांसाहारी कोई कम धार्मिक हिन्दू नहीं होता। वैसे भी, मांसाहार मुगलों की ही देन नहीं है, इस भूमी और इसी संस्कृति से जुड़ा है । लुब्धक एक संस्कृत शब्द है और पुरानों में भी पाया जाता है । क्या अर्थ है जरा समझ लें ।
महाभारत की एक कहानी है - अभी नाम सहित संदर्भ याद नहीं लेकिन मैंने पढ़ी है और वो भी महाभारत में ही - एक मुनि साधना कर रहे थे, एक पाँव पर खड़े हो कर । अचानक ऊपर से एक पक्षिणी ने मलत्याग किया जो इन्के ऊपर गिरा। मुनिश्री ने क्रोध से ऊपर देखा तो पक्षिणी जलकर भस्म हुई । मुनि फूले न समाये , सिद्धि मिली ! फिर गाँव में गए भिक्षा मांगने । एक द्वार पर खड़े हो कर आवाज लगाई तो गृहस्वामिनी ने देर कर दी। मुनि ने उसे भी क्रोध से घूरा तो उसने जवाब दिया कि भस्म होने के लिए मैं कोई पक्षिणी नहीं । मुनि अवाक हुए, उसके पैर छूए । अपनी गुरु बनने के लिए आग्रह किया तो उसने अपने से योग्य व्यक्ति के पास भेजा । गाँव का खटीक । मतलब, यह व्यवसाय तब भी था ।
वैसे भी, हिंदुओं में कभी इस बात को ले कर झगड़ा हुआ तो नहीं था आज तक । मुंबई में जो हुआ उसमें शिव सेना और मनसे के बाजू से दूसरे हाथ से ताली का आवाज जरा ज्यादा था, लेकिन ताली बजने के लिए पहला हाथ मौजूद था उसे किसी ने देखा नहीं । आवाज होते ही दूसरे हाथ पर ही फोकस हुआ । उसके स्थानिक पहलुओं से नजर हटाकर दोनों ठाकरे बंधुओं को स्याह रंग में दर्शाने का प्रयास हुआ और दुख की बात है कि सफल हुआ । स्थानिक गुजराती जैनोंपर से फोकस हट कर पूरे जैन समाज के विरोधी दिखाये गए ।
दोनों सेनाओं का प्रदर्शन घटिया था और उसके सिर्फ कसाइयों ने मजे लिए और दोनों को और उकसाया । जैसे सर्कल में झगड़ते मुर्गों को उत्साहित करते हैं ।
खैर, वेज वि नॉन वेज का झगड़ा बहुत ज्यादा हुआ । इस बात पर, वेज वालों को भी समझना है कि नॉन-वेज वाले हिन्दू भी काफी हैं, और वो नॉन वेज खाने से वे आप से कमतर दर्जे के हिन्दू नहीं हो जाते । और कुछ नए नहीं हैं, सदियों से नों वेज हैं । झगड़े का कारण नहीं है, झगड़ा लगाया गया है । झगड़ते ही रहोगे तो टूटोगे, सभी आसानी से मारे जाओगे । हमारे शत्रु वही चाहते हैं ।
वैसे, कोई जैन बंधु बताएगा कि कोई जैन राजा ने कभी किसी मुसलमान आक्रांता से कोई लड़ाई जीती थी?
साथ चलने की कीमत मांगने से पहले, अकेले चलने का नुकसान समझ लो ।

मांसाहार पर दो common sense के शब्द

चटपटी और निरर्थक चर्चा के लिए शाकाहार और मांसाहार विवाद एक evergreen subject है । जितना मांसाहार जिह्वालौल्य है उतना ही यह विवाद जिह्वा लड़ाने के काम आता है।
एक व्यावहारिक बात कहता हूँ । मांसाहार दुनिया में है और रहेगा जब तक उसके उपभोक्ता मौजूद हैं । मैं और आप एक दूसरे से विवाद कर के उसे मिटा नहीं सकते । मांसाहारी आप को मांसाशन की दावत नहीं दे रहा है, और आप उसे शाकाहार का महत्व अलग से समझा ही नहीं सकते क्योंकि वो शाकाहार लेता ही हैं, उसकी रुचि तथा लाभ जानता है ।
ये जान लीजिये कि मांसाहार एक बहुत बड़ा व्यापार है । भारत में ही रोज का करोड़ों का व्यापार है, हो सकता है अब्जों का भी हो । और ये करोड़ों जिनके जेब से जाते हैं वे ज़्यादातर हिन्दू ही हैं ।
सिर और छाती पीटना है तो कृपया और कहीं जाएँ । मैं कुछ व्यावहारिक बात कर रहा हूँ । चिकन, भेड़ बकरी पालकर सप्लाइ करनेवाके ज़्यादातर हिन्दू हैं । चिकन में कई जगहों पर विधर्मी भी हैं लेकिन भेड़ बकरियाँ पालनेवाले गड़रिये ज़्यादातर हिन्दू हैं । ये हुए रॉ मटिरियल सप्लायर ।
खानेवाले याने end user या consumer भी ज़्यादातर हिन्दू, लेकिन बीच का आवश्यक घटक है जो कसाई वो हिन्दू नहीं है । क्या आप को पता है इस लाइन में कमाई कितनी है? और क्या आप को यह भी पता है कि हिंदुओं में भी यह काम करनेवाली एक जाती मौजूद है जिसे खटीक कहते हैं ? आज इस समाज के युवा अपने परंपरागत धंधे को पता नहीं कौनसे शर्म के मारे छोड़कर कहीं और हाथ पैर मार रहे हैं जहां इतने सफल भी नहीं रहे हैं ।
अगर मांसाहारी हिन्दू शाकाहारी होने से रहे तो कम से कम ये देखे कि अपने पैसों से बृहद हिन्दू समाज के संवर्धन में योगदान दें । आज अगर खटीक सम्पन्न नहीं है तो कल वो आरक्षण के लाइन में खड़ा होगा, बोझ में बढ़ोतरी करेगा । अगर हिन्दू यह आर्थिक शृंखला को मजबूत करे तो उसका स्तर सुधरेगा और वो याचक नहीं, दाता होगा क्योंकि इस धंधे में अच्छी कमाई है । समृद्धि आती है तो अपने साथ अक्ल भी लाती है नए नए काम करने की । अपने आप समाज में पांत से पांत मिलाकर बैठेगा, कंधे से कंधा मिलाकर चलेगा। क्या आप को कोई आपत्ति है अगर इस धंधे से सम्पन्न हुआ हिन्दू खटीक आप के साथ एक टेबल पर बैठे? चोरी या काला बाजार तो नहीं कर रहा है !
पैसे तो खर्च होंगे ही, आप के दिमाग खाने से मांसाहारी हिन्दू खाना नहीं छोड़नेवाले । कम से कम उन पैसों से हिन्दू ही अधिक सशक्त होगा । वैसे भी जब भी विधर्मियों से पाला पड़ा है, हिंदुओं के सब से प्रखर सैनिक यहीं से आए हैं । अगर हम उनकी संपन्नता में योगदान देते हैं तो अपने सैनिकों का ही यथोचित सम्मान करते हैं । समाज की एक दूसरे पर अवलम्बिता जहां बढ़ती है वही समाज अधिक एकत्रित और सशक्त भी होता है यह अनुभूत तत्व है ।
अंत में इतना ही कहूँगा कि शौक से शाकाहारी रहिए , बस मांसाहार का वृथा विरोध कर के झगड़े मत बढ़ाइए । मांसाहार का वॉल्यूम देखें तो नदिया की बाढ़ है, आप के टूटपुंजिये दीवार से नहीं रुकनेवाली । बेहतर होगा कि नहरें निकाल कर अपने खेती को सींच लें; जो अभी सूख रही है । फसल आखिर में आप के भी काम आनेवाली है ।
कहिए, शेयर भी करिए .....

शनिवार, 19 सितंबर 2015

Amerigo Bonasera, Adarsh Liberal सेक्युलर हिन्दू

Mario Puzo का उपन्यास The Godfather एक कालजयी कलाकृति मानी जाती है । न केवल एक काल विशेष के अमेरिकन अपराध की दुनिया का जिंदा आलेख है, बल्कि रोजाना जिंदगी के व्यवहार, बिजनेस, इत्यादि कई बातों में उसके प्रसंग दृष्टांत से माने जाते हैं । कैनवस बड़ा है, पात्र कई है, और हर कोई 20-30 बार नहीं पढ़ता, फिर भी कोई न कोई पात्र हर पाठक को याद रह ही जाता है।

The Godfather के कट्टर चाहनेवाले तो शीर्षक से ही इस पोस्ट का अंदाज भाँप गए होंगे । बाकियों के लिए जरा सा वर्णन कि बोनासेरा है कौन । तो ये है एक अंतिम विधि के पार्लर का मालिक । मूल सिसिलियन ही है जो अमेरिका में बसा है । गॉडफादर वीटो कोर्लियोन और अमेरिगो एक ही मूल के हैं और गॉडफादर की बीवी ने अमेरिगो कि बेटी को बेटी भी माना है । लेकिन गॉडफादर माफिया है इसलिए अमेरिगो उस से दूरी बनाए रखता है ।

वक़्त यूं आता है कि अमेरिगो की जवान बेटी अपने बॉयफ्रेंड के साथ जब बाहर जाती है तो वो उसे शराब पिलाकर और एक दोस्त के साथ उससे सेक्स चाहता है । वो मना कर देती है तो दोनों लड़के उसे बुरी तरह पीटते हैं। जबड़ा तोड़ देते हैं और अन्यत्र भी घायल कर देते हैं । वो इज्जत तो बचा लेती है लेकिन उसकी हालत बहुत बुरी हो जाती है । बड़े बड़े ऑपरेशन जरूरी होते हैं।

अमेरिगो उन लड़कों पर पुलिस केस कर देता है । न्याय की उम्मीद से कोर्ट पहुंचा अमेरिगो निराश होता है – दोनों लड़के बड़े घरों से हैं और हालांकि जज उन्हें सजा सुनाता तो है लेकिन सजा मुल्तवी रखता है याने लड़के हँसते हँसते घर चले जाते हैं । निराश, टूटा अमेरिगो, प्रतिशोध के लिए गॉडफादर के पास आता है ।

गॉडफादर उसे शालीन भाषा में खरी खरी सुना  देता है कि पहले तो आप कभी नहीं आए। अमेरिगो कहता है कि वो अमेरिका में विश्वास करता है। इस देश ने उसे धनवान बनाया है। उसके बाद वो अपनी बेटी का किस्सा बयान करता है और अपने अपमान को याद कर के रो पड़ता है । बाद में वो गॉडफादर से मांग करता है कि वो उन दो लड़कों को मरवा दे। उसके लिए जितना चाहे उतना धन देने का वादा करता है । गॉडफादर हाथ के इशारे से ही बता देता है कि पैसे का उसे कोई महत्व नहीं है, और वो इस ऑफर को अपमान समझता है ।

‘पुलिस, कोर्ट के पहले ही मेरे पास आते, तो जिनहोने आप के  बेटी को बर्बाद किया है वे आज अपने किए की सजा पा रहे होते। आप जैसे ईमानदार आदमी से कोई दुश्मनी लेने से डरता क्योंकि उन्हें मुझसे निपटना होता । लेकिन मुझे याद नहीं आ रहा कि एक दूसरे को इतने सालोंतक जानने के बावजूद भी आप ने मुझे कभी अपने घर कॉफी पर बुलाया हो । जाने दीजिये, एक बात दोनों साफ साफ समझ लेते हैं, आप को मुझसे दोस्ती चाहिए न थी, और मेरे कर्जदार होने का आप को डर था।

ठीक है, आप की बात को भी समझता हूँ, आप को यहाँ स्वर्ग मिला, धंधा मिला, फला फूला, पुलिस थी जो आप की रक्षा करती थी, तो आप को मेरे दोस्ती की जरूरत महसूस न हुई । कभी मुझसे इज्जत से पेश भी न आए और आज मुझ से न्याय दिलाने को कह रहे हैं। पैसे दे कर खून करवाने कह रहे हैं। ‘  

Bonasera, Bonasera, what have I ever done to make you treat me so disrespectfully? If you'd come to me in friendship, this scum who ruined your daughter would be suffering this very day. And if by some chance an honest an honest man like yourself made enemies they would become my enemies. And then, they would fear you.

We have known each other many years, but this is the first time you've come to me for counsel  or for help. I can't remember the last time you invited me to your house for a cup of coffee, even though my wife is godmother to your only child. But let's be frank here. You never wanted my friendship. And you feared to be in my debt.

बोनासेरा शर्मिंदगी से माफी मांगता है और न्याय के लिए भीख मांगता है। गॉडफादर पसीज जाता है और कहता है कि आप का काम हो जाएगा। बशर्ते, वे लड़के मरेंगे नहीं, आप की बेटी जो जिंदा है । हाँ, उन्हें बराबर सबक जरूर मिलेगा । गॉडफादर अपने सहायक को बुलाकर सूचना देता है और कहता है की देखो, इस काम के लिए लोग ऐसे चुनें जो बहक न जाये। मेरा मतलब है हम खूनी नहीं हैं,  बोनासेरा जो भी हमारे बारे में सोचता हो ...

I want reliable people, people who aren't going to be carried away. I mean, we're not murderers, in spite of what this undertaker thinks...

बात अब तक भी साफ समझ में न आई  हो तो और कुछ कहकर समझनेवाली  भी नहीं। बस इतना कहूँगा कि हिन्दू होना शर्म की बात नहीं है । न ही हिंदुओं से जुड़े रहने में कोई शर्म है । एकता में शक्ति है और शक्ति को ही सम्मान मिलता है । एक उदाहरण देता हूँ । क्या आप को पता है कि अमृतसर का स्वर्णमन्दिर बॉर्डर के कितना करीब है? लेकिन आज तक कभी पाकियों ने गोला या रॉकेट दागने की हिम्मत नहीं की है । आई बात समझ में?

और हाँ, लव जिहाद के बारे में कभी तो पढ़ा ही होगा? और वो प्रसिद्ध जुमला – लड़कों से गलतियाँ हो जाती है – वो भी सुना ही होगा ।

आखिर में आप को बोनासेरा का अर्थ बता देना मेरा फर्ज समझता हूँ । बोनासेरा का अर्थ होता है farewell । याने ईश्वर आप की रक्षा करे।

बोनासेरा, Adarsh Liberal Hindu Secular ! बुद्ध का वचन सदा स्मरें  - संघम शरणम  गच्छामि । 

पोस्ट अच्छी लगी हो तो शेयर जरूर करें । किसी बोनासेरा के लिए ये बेहद जरूरी हो सकती है । 

न घुलेंगे, न घुलने देंगे ।

मेरे मित्र सूची मे शामिल मुस्लिम मित्र मेरी सोच से वाकिफ हैं और जानते भी हैं कि वे इस पोस्ट से परे हैं । 

योग को ले कर मजहबी नेताओं ने जो भड़काऊ बयान दिये, TRP लूटे, सबके लिए काफी मनोरंजन रहा । लेकिन इस बात का एक बुनियादी पहलू मेरे समझ में जो आ रहा है, पेश कर रहा हूँ । Canvas बड़ा है इसलिए कनैक्शन थोड़े लूज लग सकते हैं । कृपया धैर्य से पढ़ें और सोचें,  या फिर मर्जी आप की ।

यूं देखने जाये तो इन मुस्लिम राजनेताओं को पहले से पता होगा ही  कि उनके विरोध से योग का कार्यक्रम रद्द तो होने से रहा । ये भी पता होगा कि मुस्लिम समाज में भी सभी नहीं सुननेवाले क्योंकि योग तो जानी मानी विद्या है, सभी इसके फायदे जानते है ।  सोशल मीडिया में और मुख्यधारा में भी मज़ाक उड़ाया जाएगा ये भी अंदेशा होगा, तो फिर क्यूँ?

एक वाक्य को देखिये तो इसके पीछे की मनोभूमिका समझ आने लगेगी । “कोई भी जीत छोटी नहीं, कोई भी हार बड़ी नहीं’  दर उल इस्लाम और दर उल हर्ब आप को पता ही होगा । जो मुल्क इस्लामी नहीं वो इस्लाम के शत्रुओं का है (दर उल हर्ब) और उसे इस्लाम के सत्ता में लाना इस्लाम का ध्येय होता है । यह निरंतर संघर्ष के सिवा अशक्य है और हर संघर्ष रण नहीं होता, ना ही उसमें हिंसा होती है  । लेकिन संघर्ष होता है और उसमें हार जीत तो होती रहती है ।

उत्पात के महागुरु Saul Alinsky के नियम सब जगह लागू होते ही हैं । समाज में संघर्ष पैदा कैसे किए जाते हैं उस पर उनका सुंदर विवेचन है । उनके 7 वे और 8वे नियम यहाँ लागू होते दिख रहे हैं  -
लोगों को interested रखने के लिए हमेशा नया कुछ करते रहिए ताकि लोग साथ देते रहेंगे । (7) 
और – विरोधियों को सांस न लेने दें, हमेशा कुछ नया तरीका ढूंढ निकाले उनपर हमला करने का । अगर आप के एक तरीके को वे समझ जाते हैं तो कुछ और नया, अनपेक्षित करिए ।(8)   

इन दोनों नियमों को हम रोज चरितार्थ होते देख ही रहे हैं । कहीं न कहीं किसी न किसी बहाने ये इस्लाम को खतरे में ला देते हैं । कभी बांग देनेवाले लाउड स्पीकर की आवाज जान बूझ कर बढ़ाने का मामला हो या आरती के लिए लगाए लाउडस्पीकर उतरवाने हों । सिनेमा के किसी दो मिनट के प्रसंग से या किसी किरदार के नाम पर या कोई सीन पर भावनाएँ आहत करवानी हों या दुनियामें कहीं भी अपने कर्मों के कारण गैर मुस्लिमों के हाथों मार खाये मुसलमानों के लिए सहानुभूति दिखाने के लिए हिंसक मोर्चा निकालना हो । कोई भी हथकंडा जायज है अगर वो इनकी सामाजिक दहशत बरकरार रखता है । ये भी उनके लिए जीत है जो उनके अनुगामियों को interested रखता है । जहां भी विपक्ष टंटा न बढ़ाने की नीयत से मामला छोड़ देता है वहाँ ये अपने जीत समझते हैं और इसी भावना को प्रचारित करते हैं ताकि अनुयायी जुड़े रहें ।

आप ने अगर उनके नेताओं के भाषण देखें या सुने होंगे तो हर अपील इस्लाम के नाम पर होती है तथा हर जीत का श्रेय इस्लाम को दिया जाता है । इसके कारण हर किसी को दर उल हर्ब में अपने कर्तव्य का  पालन करने की प्रेरणा हासिल होती है । कभी कोई सामूहिक एक्शन में भाग ले, या फिर कोई बहस में भी इस्लाम का पक्ष defend करें, कहीं तो वो इस्लाम के लिए काम कर रहा है । ये कर्तव्य भावना ही उनके नेताओं के सौदेबाजी की ताकत है ।

अ-घुलनशीलता में ये शक्ति समझते हैं । कैसे, ये समझ लें । परिवेश में ये कुछ न कुछ कपड़े या और कोई चिह्न का अंगीकार करेंगे जिससे इनका मुसलमान होना अधोरेखित होगा । अपने आप में लोग दूरी बनाएँगे ताकि उनसे उलझे नहीं । इसका गलत फायदा भी भरपूर उठाते हैं उठानेवाले, बहुतों को कोई न कोई किस्सा तो याद होगा ही । इसको भी एक बड़ी सफलता मानी जाती है जिसकी बाकायदा डींगे हाँकी जाती हैं – मियाभाई से कोई पंगा नहीं लेता भाय ! अपुन कुछ बी करें....

कि मैं झूठ बोलिया?

यहाँ तक अगर आप सहमत हैं तो बहुत सारी situations आप को अपने आप समझ में आएगी, in fact, ये पढ़ते पढ़ते ही कई प्रसंग स्मरण -  समझ में आ गए होंगे ।

अब आते हैं इस लेख के शुरुआती  टॉपिक पर – योग को किए विरोध पर । आप को सवाल हो सकता है कि इसमें क्या पाया? तो इसका जवाब यूं कि अलग रहकर हमने सरकार को कुछ concession करने को मजबूर किया – ॐ को निकालने तथा सूर्यनमस्कार को निकालने के लिए ये हिंदुस्तान के हिंदुओं की हिन्दू सरकार तैयार हुई फिर भी हम अड़े रहे कि हम नहीं करेंगे । योग हिंदुस्तान के हिदुओं का है और ॐ उनके लिए सब से पवित्र है उसे भी हम ने निकलवाया ये इस्लाम की ताकत है ।  ये इस्लाम की जीत है ।

तो आप समझ ही गए होंगे कि अविरत संघर्ष क्यों और कैसे जारी है । संघर्ष के लिए इस्लामी पारिभाषिक शब्द से आप परिचित होंगे ही – जिहाद ! लक्ष्य के लिए किया गया हर संघर्ष आप इस नजरिए से जब समझेंगे तो समझ आएगा कि मिलनसार, अच्छे दोस्त वगैरा सब गुण होते हुए भी ये समाज मुख्यधारा में घुलता क्यूँ नहीं है ।

संघर्ष के लिए एक और शब्द या कहो मुहावरा, प्रचलित है – जद्दोजहद !
न जाने क्यूँ मुझे ये शब्द हमेशा ‘जिद और जिहाद’ सुनाई देता है । आप को?

उम्मीद है आप ने इस नोट को पूरा पढ़ा होगा और ये भी उम्मीद है कि आप bore नहीं हुए होंगे । आप का विचार जरूर रखें, चर्चा करेंगे । हाँ, अगर आप इस विचार से सहमत हैं तो क्या इसे शेयर करेंगे?

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‘उमर का सुलहनामा’  क्या होता है, आप को पता है?  इस पर मैंने एक विस्तृत नोट लिखी थी । आप ने अगर पढ़ी न हो तो अवश्य पढ़नी चाहिए । लीजिये ये लिंक http://belihaaj.blogspot.in/2015/09/1000.html 

शांतिदूतों के शांति प्रस्ताव - उमर का सुलहनामा - 1000 वर्ष बाद भी वही बात

इस्लाम के इतिहास में उमर का सुलहनामा एक अहम दस्तावेज़ है जिसकी जानकारी हर गैर मुस्लिम को होनी आवश्यक है । आज भी यह मानने को कारण है कि मुस्लिम राजनेता इसी को गैर मुस्लिम समाज पर किसी न किसी आंशिक रूप से थोपने की कोशिश करते रहते हैं । उस सुलहनामे की सभी शर्तें दे रहा हूँ, खुद ही पढ़ कर गौर करें । मेरी टिप्पणिया, जहां आवश्यक लगी, वहाँ कंस में दी हैं ।  वैसे  Terms Of Umar, Pact Of Umar  या Conditions Of Umar इस नाम से गूगल सकते हैं, ढेरों रिफ्रेन्स मिल जाएँगे । 
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सीरिया के ईसाई जब मुसलमानों से युद्ध हारे तो इस्लाम के दूसरे खलीफा उमर इब्न अल खत्तब को उन्होने एक सुलहनामा भेजा, जिसकी शर्तें उमर के मर्जी के मुताबिक ही थी। शर्तें कुछ इस प्रकार हैं:

  1. हमारे शहरों में या उनके आस पास के इलाकों में हम कोई नए चर्च, सन्यासियों के लिए आश्रम, सन्यासिनियों के लिए आश्रम नहीं बनवाएंगे । 
  2. मौजूदा जो भी निम्न इमारते हैं या जो भी मुस्लिम इलाके में हैं उनमें कोई क्षति उत्पन्न हो तो हम उसे वैसे ही क्षतिग्रस्त रहने देंगे, और उनकी कोई  मरम्मत करने का कतई प्रयास नहीं करेंगे । (न नए मंदिर बनाने की स्वतन्त्रता और न पुराने के जीर्णोद्धार की )
  3. राहगीर और यात्रियों के लिए हमारे किवाड़ हमेशा खुले रहेंगे। उनके रास्ते से कोई भी मुस्लिम गुजर रहे हो उन्हें हम तीन दिन तक खाने – रहने की सुविधा प्रदान करेंगे ।
  4. हमारे चर्च में या हमारे घरों में  किसी भी (मुस्लिम विरोधी) जासूस को आश्रय नहीं दिया जाएगा । न ही ऐसे किसी व्यक्ति को हम मुस्लिमों से छुपाएंगे नहीं ।
  5. हमारे बच्चों को हम कुरान नहीं सिखाएँगे । (इस्लाम के स्वरूप की जानकारी नहीं देंगे )
  6. हमारे धर्म का हम कोई भी जाहीर प्रदर्शन नहीं करेंगे और न ही किसी को हमारे धर्म में मतांतरीत करेंगे । (विसर्जन यात्रा पर आपत्तियाँ, हुल्लड़ और घर वापसी पर प्रतिक्रिया याद करें
  7. अगर हमारे किसी भी संबंधी ने इस्लाम अपनाना चाहा तो हम उसे रोकेंगे नहीं । (लव जिहाद में फंसी लड़कियों के माँ बाप ने कुछ कड़े कदम उठाए तो मीडिया से क्या तमाशा खड़ा किया जाता है याद है न? ) 
  8. हम मुसलमानों को हमेशा सन्मान देंगे। अगर हम बैठे हैं और वे बैठना चाहे तो हम उठकर हमारे आसन उन्हे देंगे ।
  9.  हम मुसलमानों की कोई नकल नहीं करेंगे – जैसे कि उनके समान वस्त्र पहनना, या उनके जैसी पगड़ी पहनना या उनके जैसे जूते पहनना या उनके समान बाल बनाना । हम बोलने का ढंग भी अलग रखेंगे और उनके बोलनेका ढंग नहीं अपनाएँगे ।
  10. हम घुड़सवारी नहीं करेंगे, न ही कोई तलवार या अन्य कोई शस्त्र रखेंगे और न ही अपने बदन पर कोई शस्त्र रखेंगे । ( खुद ही इसका अर्थ समझ लीजिये
  11. हमारे मुहरों में अरबी लिपि का प्रयोग नहीं करेंगे ।
  12. हम शराब नहीं बेचेंगे ।
  13. हमारा कपाल का हमेशा मुंडन करेंगे ।
  14. हम कहीं भी हों, एक ही तरह के वस्त्र पहनेंगे और कमर में हमेशा एक विशिष्ट पट्टा (zunar) बांधे रहेंगे ।
  15. जिन सड़कों पर या बाज़ारों में मुसलमानोंका आना जाना है वहाँ हम हमारे क्रॉस या हमारी किताबें नहीं प्रदर्शित करेंगे। 
  16. हमारे चर्च में भी ज़ोर से  घंटानाद नहीं करेंगे और केवल उनके लोलक से मंद ध्वनि करेंगे, और न ही हम प्रार्थनाएँ ऊंचे स्वर में गाएँगे ।  (नमाज कितनी भी ऊंचे आवाज में हो, लाउडस्पीकर जायज है, आरती के वक़्त लाउडस्पीकर उतारने का मुलायम तरीके से या ममतापूर्ण आग्रह )
  17. जब हम हमारे मृतकों को अंतिम विधि के लिए ले जा रहे हैं तो धीमे स्वर में में ही यात्रा होगी ।
  18. मुस्लिम इलाके से हमें गुजरना हो तो हम दिये नहीं जलाएंगे ।
  19. हमारे मृतक मुसलमानों के नजदीक नहीं दफनाएंगे ।
  20. हम हमारे घर मुसलमानों से ऊंचे नहीं बांधेंगे ।
 ये (धिम्मा की) शर्तें हमें मंजूर हैं और हम इनका पालन करेंगे जिनके बदले में आप हमारी रक्षा करेंगे । अगर हम से किसी भी शर्त का उल्लंघन हुआ तो परिणामों के हम ही जिम्मेदार होंगे । (धिम्मा = दोयम दर्जे का नागरिक होना)

जब खलीफा उमर को यह सुलहनामा पढ़ कर सुनाया गया तो उन्होने संतोष जताया और कहा कि इसमें और दो शर्तें जोड़ दिये जाये । वे हैं:
  • जिन्हें मुसलमानों ने गुलाम बनाया है ऐसे व्यक्तियों को हम खरीदेंगे नहीं । (आपका परिचित - रिश्तेदार हो तो भी खरीद के आजाद नहीं कर सकते, अब आया इस शर्त का मतलब समझ में?)
  • किसी भी मुसलमान पर हमारा हाथ नहीं उठेगा। अगर किसी ने हाथ उठाया तो उसे इस सुलहनामे से कोई भी संरक्षण उपलब्ध नहीं होगा ।
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वैसे जो मुसलमान से हारा है उसके साथ अपमानास्पद बर्ताव इस्लाम में जायज है । जज़िया जिस तरह से लिया जाता था, याने जिस तरह से अमुस्लिम को मुस्लिम अधिकारी को सौंपना पड़ता था वह बहुत ही बेइज्जती करनेवाला प्रोसीजर है लेकिन वो पूर्णतया जायज है । 

शांति के अर्थ अलग अलग होते है। हमेशा एक बात याद रखे। चर्चा के लिए एक फ्रेम ऑफ रिफ्रेन्स होती है ।शांतिदूत हमेशा आप को उनकी फ्रेम ऑफ रिफ्रेन्स पर चलाना चाहेंगे । उनके मुताबिक उनका मजहब सत्य है क्योंकि उनके श्रद्धेय ने उनसे वैसे कहा है और ये कहा है कि उन्हें ईश्वर ने भेजा है । आप से आग्रह करेंगे कि आप भी उनका ये कहना सत्य मान लें । 

शराफत से आप मान गए तो आप उनके trap में आ जाते हैं ।  उनके श्रद्धेय कहते हैं कि वे और उनका प्रणित मजहब यही अंतिम सत्य है, बाकी सब या तो झूठ है (मूर्तिपूजा) या फिर कालबाह्य है (यहूदी और ईसाई), और सभी मनुष्यों को इस्लाम स्वीकार करना बंधनकारक है । आप को या तो सहर्ष स्वीकार करना होगा अगर मुसलमान आप को दावत दे रहे हैं या फिर वे आप पर राज करेंगे - अगर आप उनसे युद्ध में जीवित रहे । श्रद्धेय का यह भी कहना है कि पूरी पृथ्वी पर इस्लाम की सत्ता कायम करना यही अल्लाह का हुक्म है, और हर मुसलमान को इस हुक्म की तामीली में अपने हैसीयत से शरीक होना है । ये उसका कर्तव्य है । 

बाकी आप सोचिए आप को क्या करना है ।  आत्मानं सततं रक्षेत । 

शेयर जरूर करें, भ्रम टूटने आवश्यक है । 

2005 का लिखा ब्लॉग, या भविष्यवाणी ?

दिसम्बर 2005 में मैंने लिखा हुआ यह  ब्लॉग पोस्ट, आज भविष्यवाणी सा लग रहा है । ये रही मूल लिंक और ये रहा उसका हिन्दी अनुवाद । 

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सऊदी अरब के जिहादियों के सम्बन्धों के बारे में कई सारे लेखक ध्यानाकर्षण कर रहे हैं । अगर हम घटनाक्रम को देखते हैं तो ध्यान में आता है कि ये संबंध की शुरुआत उस समय से हुई होगी जब तत्कालीन सऊदी किंग खालिद बीमार हो गए और राज्यशकट प्रिंस अब्दुल्लाने -जो बाद में किंग बने और 2015 तक सत्ता में  रहे  -  संभाल लिया।

एक ऐतिहासिक तथ्य को भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि विश्व भर के सुन्नी मुसलमानों का 20 वी सदी के शुरुआत तक एक खलीफ़ा हुआ करता था। सऊदी किंग खुद को ‘दोनों पवित्र मस्जिदों के संरक्षक’ कहलाते हैं। क्या वे सऊदी राजघराने को खलीफा घोषित करने की कोशिश कर रहे हैं? क्या उनका सपना ये है – मक्का में दुआ, रियाध को सलाम?

हमें देखना होगा उस कठोर, अनवरत और अप्रशम्य टाइम टेबल को, जिसे सऊदी अरब के प्रचुर आर्थिक सहायता से निर्धन मुस्लिम देशों में लागू कर दिया गया है । ऐसे देश, जहां मुस्लिम बच्चों के लिए शिक्षा के लिए मदरसा ही आय के समुचित पर्याय होगा और उनके शिक्षकों के लिए अर्थार्जन की उपलब्धि । महाभारत हमें सिखाता है – अर्थस्य पुरुषो दास: - क्या कालजयी व्याख्या है। अब सोचिए, जहां इस्लाम के प्रति निष्ठा की पुकार उठे और वो भी इस्लाम के अधिष्ठान के प्रतीक जैसे देश से – सऊदी अरब से – तो यह मदरसे से शिक्षित और अभिभूत किया हुआ युवा किस ओर झुकेगा? अगर हम यस टाइम लाइन को गौर से देखाए हैं तो समझ में आता है कि आज से और पाँच वर्षों में जहां भी मुस्लिम प्रजा बसी है, वहाँ बहुताश मुस्लिम युवा – जो औसतन उम्र के दूसरे दशक में होगा – एक सऊदी विचारधारा से प्रभावित शक्ति के रूप में उभरेगा।

यह साफ दिख रहा है कि सऊदी अरब अपने पैसे और सर्वसाधारण मुसलमान के अविवेकी मानस का मेल जोड़ा कर दुनिया का अधिकाधिक भूभाग और साथ साथ उससे संबन्धित संसाधनों पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश कर रहे हैं । यह वाकई दो सभ्यताओं के बीच का संग्राम होगा, लेकिन यह बात केवल संजोग की होगी कि वे दो सभ्यताएँ धर्म के आधार पर - इसाइयत और इस्लाम के नाम पर - विभाजित होंगी। यह संग्राम वाकई होगा तो एक सभ्यता के वाणिज्यिक सामर्थ्य का दूसरे के अनगिनत संख्याबल से। अपनी वहाबी विचारधारा को ले कर सऊदीयोने सुन्नियों के बीच ‘इस्लाम के मूल सिद्धांतों की ओर पलटो’ का नारा जगाया है और उससे ‘बिद’अत’ या अलग सोच को त्याज्य ठहराया है । निरक्षरता, गरीबी को जोड़ मिली है दृढ़ पुरुष वर्चस्ववादी सोच की  जिससे उनकी संख्या बढ़ाने में उल्लेखनीय सहायता की है । अब इसमें जोड़िए गुंडा प्रवृत्ति के लोगों को कालबाह्य और दकियानूसी नियम लागू करने के अधिकार देना (जैसे, बुर्का न पहननेवाली लड़कियों को मारपीट या उनपर एसिड फेंकना) । बस, संघर्ष का इस से बेहतर मसाला जुड़ पाना मुश्किल होगा ।

पाकिस्तानियों ने इस कहानी में अहम भूमिका निभाई है।  पाकिस्तान वो मुल्क है जिसे अंग्रेजोने और अमेरिकनों ने खुराफाती इरादों से, खुराफात कर के, खुराफात करने के लिए ('by mischief, of mischief and for mischief) पैदा किया है। (इस्राइल इसका भाई समझा जाये – क्योंकि अमेरिकनों को इतने सब तेल भरे मुल्क में एक तो अपने हक़ की भूमि चाहिए थे जहां वे किसी भी देश की हवाई सीमा का उल्लंघन किए बगैर पहुँच सकते थे) । पाकिस्तान के निर्मिति का एक इरादा ये भी था कि ये मुल्क भारत से खुराफात करता रहे और उस से भारत का आर्थिक नुकसान होता रहे जो अन्यथा उसकी आर्थिक प्रगति में काम आ सकता था।  पाकिस्तान ने हमेशा किसी न किसी आक़ा के लिए Proxy की भूमिका निभाई है, मुझे तो उसका नाम बादल कर उसे Proxystan कहने का दिल होता है । बाकी वो देश का सत्ताधारी वर्ग हमेशा महज एक अवसरवादियों का गुट रहा है, जिन्होने terror को देश का मुख्य निर्यात बनाया है और जिन्हें पता होता है कि उनके 'हुनर' के ग्राहक कौन है । 

इसका उदाहरण ये है कि उन्होने चाइना को भी साध रखा है । चाइना के लिए  भी भारत से सीधा संघर्ष करने के बजाय पाकिस्तान के द्वारा उत्पात कराते रहना सस्ता हो जाता है । ऊपर से अपना दामन साफ और भारत के साथ व्यापार का रास्ता भी खुला। इस हाथ से नुकसान करो, उस हाथ से मुनाफा भी बटोरो । वैसे सीधे संघर्ष में रशिया के बीच बचाव की भी संभावना है जो चाइना नहीं चाहता। पाकिस्तान को पाल के चाइना को बदले में उस सभी प्रदेश में रास्ते बनाने को मिले जो वे चाहते थे। उनके लिए तो दोनों हाथों में लड्डू हैं ।

पाकिस्तान को जल्द ही समझ में आ गया कि कश्मीर की खिचड़ी लंबे समय तक  तक पकाई नहीं जा सकती। शायद इसीलिए उन्होने सऊदीयोंकों पकड़ लिया । सऊदीयोंकों और अन्य  इस्लामी देशों को भी डर था इस्राइल द्वारा आण्विक हमले का। पाकिस्तान ने ‘इस्लामी बॉम्ब’ बनाने की ऑफर दे दी। हर किसी को उसके पसंद की अदा से लुभाते इस देश ने एक अनुभवी तवायफ  के तरह सब से अपना बटुआ भर लिया । बॉम्ब किसी को दिया या नहीं दिया ये मुद्दा अलग है, लेकिन इन्होने  सब के खर्चे से अपने लिए तो बॉम्ब हासिल कर लिया। इरादे वही तो थे ।

क्यूँ? सीधी बात है । अगर सब से आँख मटक्का करना है तो कहीं तो पकड़े जाने का डर रहता ही है । परमाणु बॉम्ब इसी संभावना के सामने संरक्षण है, और जब उन्हें धमकियाँ देनी हो तो धमकी को वजन भी तो यही बॉम्ब देगा ।

क्या पश्चिम यह पाक – सऊदी गठजोड़ के नापाक कारनमे रोक सकती है? भविष्य में जो दिख रहा है वो है दो ताकतों का ध्रुवीकरण । पश्चिमी जगत का नेतृत्व अमेरिका के हाथों, दूसरे ताक़त का खेमा सऊदी और चाइनिज। भारत इनके बीच कहाँ रहेगा । क्या वो अलिप्त रह पाएगा? जब पश्चिम का इस्लाम से संघर्ष होगा तो क्या भारत अ-प्रभावित रह पाएगा? या उसे किसके साथ हाथ मिलाने होंगे?

काफी चिंताजनक परिस्थितियाँ हैं ।

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तो ये था 2005 का आंकलन । कुछ बदलाव हैं, रशिया तब संभल रहा था, आज संभल कर आक्रामक भी हो गया है । सऊदी के अब्दुल्ला भी अल्लाह के प्यारे हो गए । सऊदी खुद तो खलीफा नहीं बने लेकिन आज IS को पाल-पोस रहे हैं । बाकी तब देखा गया टाइम टेबल आज कार्यान्वित होते दिखाई दे रहा है । लेकिन और एक बात सोचने जैसी है ।

अगर मेरे जैसा सामान्य आदमी बिना किसी खास खबरी यंत्रणा के यह सब समझ सकता है, तो रॉ और आईबी के पास तो यंत्रणा भी है और टॉप क्लास विश्लेषक भी । और सरकार इस समस्या से निपटने की क्षमता भी रखती है, अगर सत्ताधारी निपटने दें तो । कैंसर का इलाज हमेशा शुरुवाती स्टेज में ही फायदेमंद होता है । बाद में भी हो तो सकता है, लेकिन काफी खर्चीला होता है, बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है । माता रोम के शासन में इस कैंसर को 2005 से आज कहांतक फैलने दिया गया  है, पता नहीं ।

कमेन्ट अवश्य करें, ये हमारे ही भविष्य की बात है । और हाँ, अगर आप को लगता है कि मित्रों के साथ इसे शेयर किया जाये, तो अवश्य करें ।