शनिवार, 19 सितंबर 2015

2005 का लिखा ब्लॉग, या भविष्यवाणी ?

दिसम्बर 2005 में मैंने लिखा हुआ यह  ब्लॉग पोस्ट, आज भविष्यवाणी सा लग रहा है । ये रही मूल लिंक और ये रहा उसका हिन्दी अनुवाद । 

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सऊदी अरब के जिहादियों के सम्बन्धों के बारे में कई सारे लेखक ध्यानाकर्षण कर रहे हैं । अगर हम घटनाक्रम को देखते हैं तो ध्यान में आता है कि ये संबंध की शुरुआत उस समय से हुई होगी जब तत्कालीन सऊदी किंग खालिद बीमार हो गए और राज्यशकट प्रिंस अब्दुल्लाने -जो बाद में किंग बने और 2015 तक सत्ता में  रहे  -  संभाल लिया।

एक ऐतिहासिक तथ्य को भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि विश्व भर के सुन्नी मुसलमानों का 20 वी सदी के शुरुआत तक एक खलीफ़ा हुआ करता था। सऊदी किंग खुद को ‘दोनों पवित्र मस्जिदों के संरक्षक’ कहलाते हैं। क्या वे सऊदी राजघराने को खलीफा घोषित करने की कोशिश कर रहे हैं? क्या उनका सपना ये है – मक्का में दुआ, रियाध को सलाम?

हमें देखना होगा उस कठोर, अनवरत और अप्रशम्य टाइम टेबल को, जिसे सऊदी अरब के प्रचुर आर्थिक सहायता से निर्धन मुस्लिम देशों में लागू कर दिया गया है । ऐसे देश, जहां मुस्लिम बच्चों के लिए शिक्षा के लिए मदरसा ही आय के समुचित पर्याय होगा और उनके शिक्षकों के लिए अर्थार्जन की उपलब्धि । महाभारत हमें सिखाता है – अर्थस्य पुरुषो दास: - क्या कालजयी व्याख्या है। अब सोचिए, जहां इस्लाम के प्रति निष्ठा की पुकार उठे और वो भी इस्लाम के अधिष्ठान के प्रतीक जैसे देश से – सऊदी अरब से – तो यह मदरसे से शिक्षित और अभिभूत किया हुआ युवा किस ओर झुकेगा? अगर हम यस टाइम लाइन को गौर से देखाए हैं तो समझ में आता है कि आज से और पाँच वर्षों में जहां भी मुस्लिम प्रजा बसी है, वहाँ बहुताश मुस्लिम युवा – जो औसतन उम्र के दूसरे दशक में होगा – एक सऊदी विचारधारा से प्रभावित शक्ति के रूप में उभरेगा।

यह साफ दिख रहा है कि सऊदी अरब अपने पैसे और सर्वसाधारण मुसलमान के अविवेकी मानस का मेल जोड़ा कर दुनिया का अधिकाधिक भूभाग और साथ साथ उससे संबन्धित संसाधनों पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश कर रहे हैं । यह वाकई दो सभ्यताओं के बीच का संग्राम होगा, लेकिन यह बात केवल संजोग की होगी कि वे दो सभ्यताएँ धर्म के आधार पर - इसाइयत और इस्लाम के नाम पर - विभाजित होंगी। यह संग्राम वाकई होगा तो एक सभ्यता के वाणिज्यिक सामर्थ्य का दूसरे के अनगिनत संख्याबल से। अपनी वहाबी विचारधारा को ले कर सऊदीयोने सुन्नियों के बीच ‘इस्लाम के मूल सिद्धांतों की ओर पलटो’ का नारा जगाया है और उससे ‘बिद’अत’ या अलग सोच को त्याज्य ठहराया है । निरक्षरता, गरीबी को जोड़ मिली है दृढ़ पुरुष वर्चस्ववादी सोच की  जिससे उनकी संख्या बढ़ाने में उल्लेखनीय सहायता की है । अब इसमें जोड़िए गुंडा प्रवृत्ति के लोगों को कालबाह्य और दकियानूसी नियम लागू करने के अधिकार देना (जैसे, बुर्का न पहननेवाली लड़कियों को मारपीट या उनपर एसिड फेंकना) । बस, संघर्ष का इस से बेहतर मसाला जुड़ पाना मुश्किल होगा ।

पाकिस्तानियों ने इस कहानी में अहम भूमिका निभाई है।  पाकिस्तान वो मुल्क है जिसे अंग्रेजोने और अमेरिकनों ने खुराफाती इरादों से, खुराफात कर के, खुराफात करने के लिए ('by mischief, of mischief and for mischief) पैदा किया है। (इस्राइल इसका भाई समझा जाये – क्योंकि अमेरिकनों को इतने सब तेल भरे मुल्क में एक तो अपने हक़ की भूमि चाहिए थे जहां वे किसी भी देश की हवाई सीमा का उल्लंघन किए बगैर पहुँच सकते थे) । पाकिस्तान के निर्मिति का एक इरादा ये भी था कि ये मुल्क भारत से खुराफात करता रहे और उस से भारत का आर्थिक नुकसान होता रहे जो अन्यथा उसकी आर्थिक प्रगति में काम आ सकता था।  पाकिस्तान ने हमेशा किसी न किसी आक़ा के लिए Proxy की भूमिका निभाई है, मुझे तो उसका नाम बादल कर उसे Proxystan कहने का दिल होता है । बाकी वो देश का सत्ताधारी वर्ग हमेशा महज एक अवसरवादियों का गुट रहा है, जिन्होने terror को देश का मुख्य निर्यात बनाया है और जिन्हें पता होता है कि उनके 'हुनर' के ग्राहक कौन है । 

इसका उदाहरण ये है कि उन्होने चाइना को भी साध रखा है । चाइना के लिए  भी भारत से सीधा संघर्ष करने के बजाय पाकिस्तान के द्वारा उत्पात कराते रहना सस्ता हो जाता है । ऊपर से अपना दामन साफ और भारत के साथ व्यापार का रास्ता भी खुला। इस हाथ से नुकसान करो, उस हाथ से मुनाफा भी बटोरो । वैसे सीधे संघर्ष में रशिया के बीच बचाव की भी संभावना है जो चाइना नहीं चाहता। पाकिस्तान को पाल के चाइना को बदले में उस सभी प्रदेश में रास्ते बनाने को मिले जो वे चाहते थे। उनके लिए तो दोनों हाथों में लड्डू हैं ।

पाकिस्तान को जल्द ही समझ में आ गया कि कश्मीर की खिचड़ी लंबे समय तक  तक पकाई नहीं जा सकती। शायद इसीलिए उन्होने सऊदीयोंकों पकड़ लिया । सऊदीयोंकों और अन्य  इस्लामी देशों को भी डर था इस्राइल द्वारा आण्विक हमले का। पाकिस्तान ने ‘इस्लामी बॉम्ब’ बनाने की ऑफर दे दी। हर किसी को उसके पसंद की अदा से लुभाते इस देश ने एक अनुभवी तवायफ  के तरह सब से अपना बटुआ भर लिया । बॉम्ब किसी को दिया या नहीं दिया ये मुद्दा अलग है, लेकिन इन्होने  सब के खर्चे से अपने लिए तो बॉम्ब हासिल कर लिया। इरादे वही तो थे ।

क्यूँ? सीधी बात है । अगर सब से आँख मटक्का करना है तो कहीं तो पकड़े जाने का डर रहता ही है । परमाणु बॉम्ब इसी संभावना के सामने संरक्षण है, और जब उन्हें धमकियाँ देनी हो तो धमकी को वजन भी तो यही बॉम्ब देगा ।

क्या पश्चिम यह पाक – सऊदी गठजोड़ के नापाक कारनमे रोक सकती है? भविष्य में जो दिख रहा है वो है दो ताकतों का ध्रुवीकरण । पश्चिमी जगत का नेतृत्व अमेरिका के हाथों, दूसरे ताक़त का खेमा सऊदी और चाइनिज। भारत इनके बीच कहाँ रहेगा । क्या वो अलिप्त रह पाएगा? जब पश्चिम का इस्लाम से संघर्ष होगा तो क्या भारत अ-प्रभावित रह पाएगा? या उसे किसके साथ हाथ मिलाने होंगे?

काफी चिंताजनक परिस्थितियाँ हैं ।

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तो ये था 2005 का आंकलन । कुछ बदलाव हैं, रशिया तब संभल रहा था, आज संभल कर आक्रामक भी हो गया है । सऊदी के अब्दुल्ला भी अल्लाह के प्यारे हो गए । सऊदी खुद तो खलीफा नहीं बने लेकिन आज IS को पाल-पोस रहे हैं । बाकी तब देखा गया टाइम टेबल आज कार्यान्वित होते दिखाई दे रहा है । लेकिन और एक बात सोचने जैसी है ।

अगर मेरे जैसा सामान्य आदमी बिना किसी खास खबरी यंत्रणा के यह सब समझ सकता है, तो रॉ और आईबी के पास तो यंत्रणा भी है और टॉप क्लास विश्लेषक भी । और सरकार इस समस्या से निपटने की क्षमता भी रखती है, अगर सत्ताधारी निपटने दें तो । कैंसर का इलाज हमेशा शुरुवाती स्टेज में ही फायदेमंद होता है । बाद में भी हो तो सकता है, लेकिन काफी खर्चीला होता है, बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है । माता रोम के शासन में इस कैंसर को 2005 से आज कहांतक फैलने दिया गया  है, पता नहीं ।

कमेन्ट अवश्य करें, ये हमारे ही भविष्य की बात है । और हाँ, अगर आप को लगता है कि मित्रों के साथ इसे शेयर किया जाये, तो अवश्य करें । 

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